Thursday, June 28, 2012

ये शहर कुछ अजीब है


ये शहर कुछ अजीब है,
हकीकत धुंदली,ख्वाब करीब है|

कहीं दो रोटी के लिए भागदौड़ है,
कहीं खाते खाते शरीर चौड़ है|

कहीं सोने को फूटपाथ नहीं,
कहीं जश्न चलते सारी रात हैं|

कहीं चार मज़हब के लोग ट्रेन की एक सीट पे हैं,
कहीं लोगों को बांटने के लिए मारपीट है|

कहीं हर अजनबी को शहर में जगह दे,
कहीं अपने पडोसी का नाम न बता सके|

ये शहर कुछ अजीब है,
ख्वाबों की चाहत है,हकीकत नसीब है|