ये शहर कुछ अजीब है,
हकीकत धुंदली,ख्वाब करीब है|
कहीं दो रोटी के लिए भागदौड़ है,
कहीं खाते खाते शरीर चौड़ है|
कहीं सोने को फूटपाथ नहीं,
कहीं जश्न चलते सारी रात हैं|
कहीं चार मज़हब के लोग ट्रेन की एक सीट पे हैं,
कहीं लोगों को बांटने के लिए मारपीट है|
कहीं हर अजनबी को शहर में जगह दे,
कहीं अपने पडोसी का नाम न बता सके|
ये शहर कुछ अजीब है,
ख्वाबों की चाहत है,हकीकत नसीब है|